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Speaking Silence - Pahalgam

 

Speaking Silence - Pahalgam

शांति का आखिरी पोस्टर — पहलगाम की वादी में

पहलगाम, जिसे कभी धरती का स्वर्ग कहा जाता था, अब धीरे-धीरे एक ऐसे अजायबघर में बदल रहा है जहाँ शांति को काँच के भीतर सजाकर रखा जाता है — "देखो, पर छुओ नहीं" वाले अंदाज़ में।

कभी जिन वादियों में सिर्फ झरनों का संगीत और हवा की सिसकी सुनाई देती थी, अब वहाँ गोलियों की गूँज और धमाकों की थरथराहट बसी हुई है। शांति तो अब बस पोस्टरों में मुस्कुराती है — वो भी सरकारी विज्ञापनों में, जहाँ एक नकली सूरज उगता है, नकली बच्चे हँसते हैं और नीचे लिखा होता है: "कश्मीर में सब सामान्य है!"

हकीकत?

वो तो यह है कि अब पहलगाम की सुबहें डर के कुहरे में लिपटी होती हैं, और शामें जल्दी-जल्दी अँधेरे के पल्लू में छिप जाती हैं।

"खतरा तो कहीं भी हो सकता है" — यह वाक्य अब गाइड्स और होटल वालों का सबसे प्रिय संवाद बन गया है। पर्यटक आते हैं, दो तस्वीरें लेते हैं, एक चाय पीते हैं और जल्दी-से-जल्दी वापस चले जाते हैं। क्या करें? आखिर "जान है तो जहान है" का भी कोई मूल्य है।

पहलगाम की नदियाँ, जो कभी अपने कल-कल में प्रेम गीत गाया करती थीं, अब थोड़ी सकुचाकर बहती हैं। उन्हें भी लगता है कि कहीं उनकी आवाज़ से कोई 'संदिग्ध हरकत' न समझ ली जाए। पेड़ तक, जिनके तनों पर प्रेमी युगलों ने दिल बनाए थे, अब चुप हैं — सहमे हुए, जैसे कोई चश्मदीद गवाह बनकर रह गए हों।

सरकार का कहना है:
"स्थिति नियंत्रण में है।"

स्थानीय लोगों का कहना है:
"स्थिति कहीं और है, हम तो बस जी रहे हैं।"

पर्यटक कहते हैं:
"वाह! बहुत सुंदर जगह है, बस... डर थोड़ा ज़्यादा है।"

आतंकी कहते हैं:
"डर ही तो हमारा सबसे बड़ा विज्ञापन है।"

पहलगाम का सन्नाटा अब प्राकृतिक सौंदर्य नहीं, बल्कि एक असहाय मौन का प्रतीक बन गया है।

माल रोड पर एक चाय वाला कहता है:
"साहब, पहले शोर शांति बिगाड़ता था, अब शांति शोर बन गई है।"
उसकी फटी हुई रजाई के पीछे छुपा व्यंग्य साफ दिखता है, लेकिन कहने की हिम्मत किसी में नहीं।

पर्यटन विभाग हर साल नया नारा गढ़ता है:

  • "कश्मीर बुला रहा है!"
  • "आइए, वादियों में खो जाइए!"
  • "यदि आवश्यक हो तो बुलेटप्रूफ जैकेट साथ लाइए।"

बच्चे अब भी खिलखिलाते हैं, लेकिन उनकी दौड़ में अब मासूमियत नहीं, सतर्कता है। वह नदी किनारे कंकड़ फेंकते हैं, पर हर पत्थर फेंकते समय चारों ओर देख लेते हैं कि कोई सेना की गाड़ी तो नहीं गुजर रही।

वह पहलगाम, जो प्रेम कवियों के लिए प्रेरणा था, अब समाचार चैनलों के लिए "ब्रेकिंग न्यूज़" का मैदान बन गया है। कैमरे वाले लोग हर घटना पर ऐसे टूट पड़ते हैं जैसे चील मांस के टुकड़े पर टूटती है — और फिर कुछ दिनों बाद भूल भी जाते हैं।

स्थानीय बुजुर्ग कहते हैं:
"हमने गुलाबों का वक़्त देखा है, अब कांटों का दौर है।"

नवजवान कहते हैं:
"यहाँ जीने के लिए हिम्मत नहीं, किस्मत चाहिए।"

और पहाड़ क्या कहते हैं?

वे तो बस चुपचाप देखते हैं — हर बार, हर पीढ़ी को, फिर से, फिर से...


फिर भी, कोई कैसे पहलगाम से प्रेम करना छोड़ सकता है?

जब बर्फ गिरती है, तो सब कुछ फिर से सफेद हो जाता है — जैसे ज़ख्मों पर अस्थायी पट्टी। जैसे शांति ने थोड़ी देर के लिए फिर से अपना दुपट्टा फैला लिया हो।
लेकिन असली सवाल यही है:

"क्या पहलगाम की वादियाँ फिर से असली शांति की आवाज़ सुन पाएँगी — या हम हमेशा सन्नाटे से ही समझौता करते रहेंगे?"

नोट:

लेख व्यंग्यात्मक शैली में है, लेकिन दिल से निकला है। क्योंकि कोई भी पहलगाम को केवल एक "सुरक्षा समस्या" के रूप में नहीं देखना चाहता — हम उसे फिर से जिंदा देखना चाहते हैं, असली मुस्कान के साथ। 🌸 

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